भारतीय मीडिया जागो: फुंफकारना शुरू करो या पत्थर खाने के लिए तैयार रहो

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News television mic's depiction as hissing snake

नई दिल्ली: पंचतंत्र की एक कहानी है – एक साधु ने एक बार एक जहरीले सांप से कहा कि वह अपना व्यवहार सुधार ले और लोगों को डसना बंद कर दे। सांप मान गया और साधु चले गए।

जब साधु कुछ दिनों के बाद वापस लौटे तो उन्हें वह सांप अधमरी हालत में मिला। उन्होंने आश्चर्य से पूछा कि क्या हुआ। सांप ने कहा कि अब उससे कोई नहीं डरता क्योंकि उसने काटना बंद कर दिया था और अब लोग उसे पत्थर फेंक कर मारते हैं।

साधु ने कहा, "मैंने तुम्हें काटने से मना किया था, लोगों को अपनी फुंफकार से डराने से नहीं।"

भारतीय पत्रकारिता की आज यही कहानी है। इसने बहुत पहले ही काटना बंद कर दिया था और अब तो यह फुंफकार भी नहीं सकता।

और कभी-कभी जब यह फुंफकारने की कोशिश करता है, तो राजनीतिक वर्ग इसे बेरहमी से कुचलने में ज़रा सी भी देरी नहीं करता है।

हिंदी समाचार चैनल टाइम्स नाउ नवभारत ने आरोप लगाया है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के आधिकारिक आवास के नवीनीकरण पर हुए खर्च की एक जायज़ रिपोर्टिंग के परिणामस्वरूप उनके रिपोर्टर, कैमरामैन और ड्राइवर की पंजाब में गिरफ्तारी हुई।

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने मामले पर सख्त रवैया अपनाते हुए उन तीनों को जमानत दे दी है।

उच्च न्यायालय इस बात से हैरान था कि जब आरोप जमानती थे तो आरोपियों को गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने जमानत क्यों नहीं दी और ड्यूटी मजिस्ट्रेट ने उन्हें न्यायिक हिरासत में क्यों भेज दिया।

अपने जमानत आदेश में अदालत ने कहा, "ऐसा लगता है कि किसी भी स्तर पर, कानून के प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था। यंत्रवत तरीके से पहले गिरफ्तार करने वाले अधिकारी और उसके बाद न्यायिक अधिकारियों ने गिरफ्तारी और रिमांड के आदेश जारी किए। कानून के शासनादेश के बिना किसी नागरिक को हिरासत में रखना यानी अवैध हिरासत की अनुमति नहीं दी जा सकती है। एक अदालत और वह भी, एक संवैधानिक अदालत, जब उसे पता चलता है, तो वह उस पर अपनी आंखें नहीं मूंद सकती है।”

ऐसा लगता है कि पंजाब में आप सरकार के लिए अदालत के सामने अपनी कारगुजारियों का स्पष्टीकरण देना भारी पड़ने वाला है। और अगर अदालत ने सरकार की कार्रवाई में दोष पाया तो आप पर हमेशा के लिए एक काला धब्बा पड़ जाएगा।

साथ ही, यह आप के वरिष्ठ नेताओं संजय सिंह और आतिशी मार्लेना को भी मुंह छुपाने की जगह ढूंढनी होगी, जिन्होंने गिरफ्तारी के तुरंत बाद रिपोर्टर, कैमरामैन और उनके ड्राइवर की निंदा करने में फुर्ती दिखाई थी।

अब, भारत में पत्रकारिता के आज के हालात पर वापस आते हैं, खासकर पिछले दशक में।

ताज़ा प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंकिंग 180 देशों में से 161 पर आ गई है। रिपोर्ट एक वैश्विक मीडिया वॉचडॉग रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (RSF) द्वारा तैयार की गई है। 2022 में भारत 150वें स्थान पर था।

प्रेस को कुचलने के लिए देश का पूरा राजनीतिक वर्ग समान रूप से जिम्मेदार है। इस संबंध में किसी भी राजनीतिक दल को बख्शा नहीं जा सकता है।

लेकिन उतना ही दोषी खुद प्रेस भी है जिसने राजनीतिक वर्ग के सामने पूरी तरह से घुटने टेक दिए हैं।

राजनीतिक वर्ग में पत्रकारों के पीछे पुलिस छोड़ देना एक आम बात हो गई थी। इसकी शुरुआत छोटे शहरों से हुई थी। स्टिंगर्स ने सबसे पहले इसका सामना किया और राष्ट्रीय राजधानी में बड़े पत्रकार यह सोचकर चुप रहते थे कि राक्षस बन चुका राजनीतिक वर्ग उन्हें नहीं खाएगा। लेकिन अब वे महसूस कर रहे हैं कि राक्षस की आदत ऐसी हो गई है कि उसने छोटे शहर के पत्रकारों और पत्रकारिता के बड़े नामों के बीच में भेदभाव करना छोड़ दिया है।

भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार कहा था कि आपातकाल के दौरान जब मीडिया को झुकने के लिए कहा गया तो वह रेंगने लगा।

ऐसा लगता है कि उनके बयान को बदलने का समय आ गया है - जब झुकने के लिए कहा गया, तो मीडिया ने मरा हुआ होने का अभिनय करना शुरू कर दिया।

यह पूरी मीडिया बिरादरी के लिए एक वेक-अप कॉल है। काटो और फुंफकारो नहीं तो पत्थर खाने के लिए तैयार रहो।

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